भरी दोपहर में वो कोई ख़्वाब देखता था
क़ाग़ज के पर देकर मेरी परवाज़ देखता था...
क़ाग़ज के पर देकर मेरी परवाज़ देखता था...
दबा कर चंद तितलियाँ मेरे तकिये के नीचे
मौहब्ब्त के नये आदबो-अख़्लाक देखता था...
कभी दस्त चूमता था, कभी पेशानी मेरी
सजा सजा के मुझे मेरे नये अंदाज़ देखता था...
हर सुबह बाँधता था जुगनुओं के पाँव में घुँघरु
फ़िर उनका रक़्स वो सरे बाज़ार देखता था...
जब से होने लगी है मेहराब मेरे घर की ऊँची
अजीब खौफ़ से मेरा अहबाब मुझे देखता था...
वो मौज़िज़ भी था मौतबर, और मुहाफ़िज भी
भंवर में पड़ी कौम को वो बस दूर से देखता था...
मश्विरा है "शम्स" कि ख़्वाब अपना न बताये कोई
वो बेवज़ह लुट ही गया हाकिम खामोश देखता था...
By Poet Shamas
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