Thursday, June 30, 2011

Amazing Hindi Poetry

बचपन का वो आश्वासन
शायद था अंधविश्वास
दोषी भी तो शायद
है अपनी ही आस

स्वार्थ लिप्त इस दुनिया मे
भावनाओं का मोल नही
गूंगापन मंज़ूर यहाँ है
पर मन के सच्चे बोल नही
रह जाता है पंछी फड़फ़डा कर अपने परों को
तोड़ने को आतुर वो लोहे कि उन छड़ों को
एक एक कर ढहता है धीरज का हर स्तम्भ
आहत मन का दंभ है
या है साँसों का हड़कंप
आंखें जैसे खोयी हों
टूटे सपनों की समीक्षा मे
निगल ना जाये रात इन्हें
भोर कि प्रतीक्षा मे


फूँक कर रखने हैं कदम
कहीं छूट ना जाये संयम
और टूट ना जाएँ कहीँ
"सुसंस्कृत" समाज के
ये दृढतम नियम ....

No comments:

Post a Comment