Poetry
- "ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के,
- ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के,
- कहाँ है कहाँ है मुहाफ़िज़ खुदी के?
- जिन्हें नाज़ है हिंद पर,वो कहाँ हैं?" ............................................................................................................................................................
- "मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे, बज़्म- ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या माने. सबत जिन राहों पर है सतबते शाही के निशां उसपे उल्फत भरी रूहों का गुज़र क्या माने?"-
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जश्ने ग़ालिब / साहिर लुधियानवी
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- (यह नज़्म 1968 में लिखी गई)
इक्कीस बरस गुज़रे आज़ादी-ए-कामिल को,
तब जाके कहीं हम को ग़ालिब का ख़्याल आया ।
तुर्बत है कहाँ उसकी, मसकन था कहाँ उसका,
अब अपने सुख़न परवर ज़हनों में सवाल आया ।
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- सौ साल से जो तुर्बत चादर को तरसती थी,
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- अब उस पे अक़ीदत के फूलों की नुमाइश है ।
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- उर्दू के ताल्लुक से कुछ भेद नहीं खुलता,
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- यह जश्न, यह हंगामा, ख़िदमत है कि साज़िश है ।
जिन शहरों में गुज़री थी, ग़ालिब की नवा बरसों,
उन शहरों में अब उर्दू बे नाम-ओ-निशां ठहरी ।
आज़ादी-ए-कामिल का ऎलान हुआ जिस दिन,
मातूब जुबां ठहरी, गद्दार जुबां ठहरी ।
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- जिस अहद-ए-सियासत ने यह ज़िन्दा जुबां कुचली,
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- उस अहद-ए-सियासत को मरहूमों का ग़म क्यों है ।
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- ग़ालिब जिसे कहते हैं उर्दू ही का शायर था,
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- उर्दू पे सितम ढा कर ग़ालिब पे करम क्यों है ।
ये जश्न ये हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं,
कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएँ ।
जो वादा-ए-फ़रदा, पर अब टल नहीं सकते हैं,
मुमकिन है कि कुछ अर्सा, इस जश्न पर टल जाएँ ।
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- यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाकत है,
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- हम लोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं ।
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- गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में,
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- हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं ।
तुर्बत= क़ब्र; मसकन= निवासस्थान; अक़ीदत - श्रद्धा, वादा-ए-फ़रदा= कल के लिए किया गया वायदा
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हवस-नसीब नज़र को कहीं क़रार नहीं / साहिर लुधियानवी
हवस-नसीब नज़र को कहीं क़रार नहीं
मैं मुन्तिज़र हूं मगर तेरा इन्तज़ार नहीं
हमीं से रंग-ए-गुलिस्तां हमीं से रंग-ए-बहार
हमीं को नज्म्-ए-गुलिस्तां पे इख्तयार नहीं
अभी न छेड़ मोहब्बत के गीत अए मुतिरब
अभी हयात का माहौल ख़ुशगवार नहीं
तुम्हारे अह्द-ए-वफ़ा को अहद मैं क्या समझूं
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत का ऐतबार नहीं
न जाने कितने गिले इस में मुज्तिरब हैं नदीम
वो एक दिल जो किसी का गिलागुसार नहीं
गुरेज़ का नहीं क़ायल हयात से लेकिन
जो सोज़ कहूं तो मुझे मौत नागवार नहीं
ये किस मक़ाम पे पहुंचा दिया ज़माने ने
कि अब हयात पे तेरा भी इख्तयार नहीं
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मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली / साहिर लुधियानवी
मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली
तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बतादे मुझको
मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं
चार दिन की ये रफ़ाक़त जो रफ़ाक़त भी नहीं
उमर् भर के लिए आज़ार हुई जाती है
जिन्दगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर सांस गिरांबार हुई जाती है
मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आती है
कभी इख़लास की मूरत कभी हरजाई है
प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं
तूने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओ का इज़हार करूं या न करूं
तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज़ की क़सम
तेरी पलकें मेरी आंखों पे झुकी रहती हैं
तेरे हाथों की हरारत तेरे सांसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूंढती रहती हैं तख़ईल की बाहें तुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तनहाई में
तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर
ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो
कौन जाने मेरी इम्रोज़ का फ़र्दा क्या है
क़ुबर्तें बढ़ के पशेमान भी हो जाती है
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें
देखते देखते अंजान भी हो जाती है
मेरी दरमांदा जवानी की तमाओं के
मुज्महिल ख्वाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलिस्ता भी है, वीराने भी
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझको
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